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वि श्र॑यन्तामृता॒वृध॑: प्र॒यै दे॒वेभ्यो॑ म॒हीः। पा॒व॒कास॑: पुरु॒स्पृहो॒ द्वारो॑ दे॒वीर॑स॒श्चत॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vi śrayantām ṛtāvṛdhaḥ prayai devebhyo mahīḥ | pāvakāsaḥ puruspṛho dvāro devīr asaścataḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि। श्र॒य॒न्ता॒म्। ऋ॒त॒ऽवृधः॑। प्र॒ऽयै। दे॒वेऽभ्यः॑। म॒हीः। पा॒व॒कासः॑। पु॒रु॒ऽस्पृहः॑। द्वारः॑। दे॒वीः। अ॒स॒श्चतः॑ ॥ १.१४२.६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:142» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:10» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये जो (पावकासः) पवित्र करनेवाली (ऋतावृधः) सत्य आचरण और उत्तम ज्ञान से बढ़ाई हुई (पुरुस्पृहः) बहुतों से चाहीं जातीं (द्वारः) द्वारों के समान (देवीः) मनोहर (असश्चतः) परस्पर एक दूसरे से विलक्षण (महीः) प्रशंसनीय वाणी वा पृथिवी जिनकी (प्रयै) प्रीति के लिये विद्वान् जन कामना करते उनका आप लोग (विश्रयन्ताम्) विशेषता से आश्रय करें ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को सबके उपकार के लिये विद्या और अच्छी शिक्षायुक्त वाणी और रत्नों को प्रसिद्ध करनेवाली भूमियों की कामना करनी चाहिये और उनके आश्रय से पवित्रता संपादन करनी चाहिये ॥ ६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या देवेभ्यो याः पावकास ऋतावृधः पुरुस्पृहो द्वारो देवीरसश्चतो महीः प्रयै विद्वांसः कामयन्ते ता भवन्तो विश्रयन्ताम् ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वि) (श्रयन्ताम्) सेवन्ताम् (ऋतावृधः) ऋतेन सत्येनाचरणेन विज्ञानेन च वृद्धाः (प्रयै) प्रयितुम् (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (महीः) पूज्यतमा वाचः पृथिवी वा। महीति पृथिवीना०। निघं० १। १। महीति वाङ्ना०। निघं० १। ११। (पावकासः) पवित्रकारिकाः (पुरुस्पृहः) याः पुरुभिः स्पृह्यन्त ईप्स्यन्ते ताः (द्वारः) द्वार इव सुशोभिताः (देवीः) कमनीयाः (असश्चतः) परस्परं विलक्षणाः ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सर्वेषामुपकाराय विद्यासुशिक्षिता वाचो रत्नकर्यो भूमयश्च कमितव्याः। तदाश्रयेण पवित्रता संपादनीया ॥ ६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी सर्वांच्या उपकारासाठी विद्या व सुशिक्षणयुक्त वाणी तसेच रत्न देणाऱ्या भूमीची कामना केली पाहिजे व त्यांच्या आश्रयाने पवित्रता प्राप्त केली पाहिजे. ॥ ६ ॥